सरकार शिक्षा की बेहतर व्यवस्था के लिए समय-समय पर प्रयास भी करती है, लेकिन उसे अपेक्षित सफलता हासिल नहीं हो पा रही है। सरकारी स्कूलों को अनुदान देने का तरीका बदलकर अपेक्षित सफलता हासिल की जा सकती है। इसके तहत प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण यानी डीबीटी के माध्यम से स्कूल फीस की प्रतिपूर्ति की धनराशि को सीधे बच्चों के माता-पिता के बैंक खाते में स्थानांतरित किया जा सकता है अथवा उन्हें 'वाउचर' दिया जा सकता है। इससे प्रत्येक बच्चे को वाउचर पर लिखी निर्धारित फीस लेने वाले तमाम स्कूलों में से अपने लिए सर्वश्रेष्ठ विद्यालय चुनने का अवसर भी मिल सकेगा। इससे भारत के तमाम बच्चों का भविष्य बदल सकता है। अगर वाउचर फंडिंग शुरू हो जाए तो देश के खराब गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूल और वहां के शिक्षकों की भी जवाबदेही बढ़ेगी, क्योंकि इन स्कूलों और इनके शिक्षकों के वेतन को भी स्कूल की फंडिग से जोड़ा जाएगा। बच्चों के इन स्कूलों में दाखिला लेने पर ही इन स्कूलों की फंडिंग निर्भर हो जाएगी।
सरकारी प्राथमिक स्कूलों में बच्चे टिकते नहीं हैं। तमाम स्कूल खाली पड़े हुए हैं। एक आंकड़े के अनुसार वर्ष 2011-2017 के बीच सरकारी स्कूलों में होने वाले कुल दाखिलों में 2.38 करोड़ की गिरावट आई है, वहीं निजी स्कूलों के कुल नामांकन में 2.11 करोड़ छात्रों की वृद्धि हुई है। बच्चों के पलायन के चलते अधिकांश सरकारी स्कूल शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से अलाभकारी बन गए हैं। कुल सरकारी स्कूलों में से 41 प्रतिशत (4,26,700) स्कूलों में छात्रों की संख्या 50 से भी कम है। डीबीटी के तहत सरकार हर बच्चे के अभिभावक को एक निर्धारित धनराशि का वाउचर दे सकती है। यदि इस वाउचर की राशि 500 रुपये प्रति माह के रूप में निर्धारित की जाती है तो इसका मतलब है कि अभिभावक अपने बच्चे को किसी भी ऐसे स्कूल में दाखिला दिला सकते हैं जहां की मासिक फीस 500 रुपये तक है, लेकिन यदि कोई इससे अधिक फीस वाले स्कूल में अपने बच्चे को भेजना चाहता है तो बाकी के पैसे अपनी जेब से वहन कर सकता है। विश्व के कई देश कोलंबिया, चिली, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, अमेरिका आदि में स्कूल वाउचर योजना को लागू कर बेहतर परिणाम प्राप्त कर चुके हैं। यही भारत को करना चाहिए। फिलहाल अपने यहां सरकारी अनुदान सीधे स्कूल को मिलता है I
वाउचर योजना की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह अभिभावकों को स्कूल चुनने का अधिकार देती है। अगर वे स्कूल की गुणवत्ता या वहां के माहौल से असंतुष्ट हैं तो वे अपने बच्चे को उस स्कूल से निकाल कर दूसरे स्कूल में डाल सकते हैं, जिससे उस स्कूल को वाउचर से मिलने वाली धनराशि भी बंद हो जाएगी। ऐसे में एक ओर जहां स्कूलों एवं शिक्षकों की अभिभावकों के प्रति जवाबदेही बढ़ेगी तो दूसरी ओर स्कूलों को इस वाउचर धनराशि को प्राप्त करने के लिए अधिक से अधिक बच्चों को अपने स्कूल में प्रवेश लेने के लिए आकर्षित करने के लिए दूसरे स्कूलों के साथ प्रतिस्पर्धा भी करनी पड़ेगी। ऐसे में ये स्कूल अच्छे परीक्षा परिणाम देने के लिए भी प्रयासरत रहेंगे। स्कूल वाउचर योजना के तहत शिक्षा में समानता भी बढ़ सकती है।
शिक्षा में डीबीटी लागू करने को लेकर सरकार की दो मुख्य आपत्तियां हैं। पहली, सरकार का मानना है कि पिछड़े ग्रामीण इलाकों में सरकारी वाउचर फंडिग के बावजूद स्थानीय शिक्षित लोग निजी स्कूल नहीं खोलेंगे। हालांकि यह डर बेबुनियाद है। नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के अनुसार गैर सहायता प्राप्त निजी प्राथमिक स्कूलों की औसत फीस ग्रामीण इलाकांे में 292 रुपये प्रति माह और शहरी इलाकों में 542 रुपये प्रति माह थी।
इस सर्वे के मुताबिक भारत के गैर सहायता प्राप्त स्कूलों में पढ़ने वाले 25 प्रतिशत बच्चों ने 200 रुपये प्रति माह से कम फीस भरी थी, 57 प्रतिशत ने 500 प्रति माह से कम फीस भरी थी, 82 प्रतिशत ने 1000 प्रति माह से कम फीस भरी थी और सिर्फ 3.6 प्रतिशत ने 2,500 रुपये प्रति माह से अधिक फीस भरी थी। इसका मतलब है कि 25 प्रतिशत निजी स्कूल 200 रुपये प्रति माह से कम फीस ले रहे हैं, जो कि 500 रुपये कीमत के वाउचर की तुलना में बेहद कम है। ऐसे में ग्रामीण इलाकों के स्कूलों एवं शिक्षित व्यक्तियों के लिए इस योजना में शामिल होना फायदेमंद होगा।
मानव संसाधन विकास मंत्रलय की डीबीटी योजना को लेकर दूसरी शंका यह है कि सरकारी स्कूल खाली हो सकते हैं। सरकार का मानना है कि जिन सरकारी स्कूलों में बेहद कम बच्चे होंगे उन्हें डीबीटी के तहत बहुत कम पैसा मिल पाएगा और ऐसे में वे अपने शिक्षकों की तनख्वाह भी नहीं दे सकेंगे। वक्त के साथ यह समस्या खत्म हो जाएगी। उदाहरण के लिए जहां बच्चे कम और शिक्षक ज्यादा हैं, वहां जब कुछ शिक्षक रिटायर होंगे तो उनकी जगह नई नियुक्ति नहीं की जाएगी। दूसरा समाधान यह है कि सरकारी और निजी स्कूलों के लिए अलग-अलग कीमत के वाउचर निर्धारित किए जाएं, क्योंकि सरकारी स्कूलों का प्रति छात्र खर्च 2017-18 में प्राथमिक स्तर पर 2,500 प्रति माह और उच्चतर प्राइमरी स्कूलों में प्रति माह 3,300 रुपये का है, जो कि औसत निजी स्कूलों की फीस से कई गुना अधिक है।